कुछ लम्हे ख़ास होते हैं

कुछ लम्हे ख़ास होते हैं
यूँ ही दस्तक दे, छन से बिखर जाते हैं
सवाल खड़े कर जाते हैं…
वह पल पहले आता तो?
क्या यूँ ही गुदगुदा जाता?
या तब भी ओझल हो जाता ?
वक्त तब क्या करवट लेता?
रुला जाता या नशा चढ़ा जाता?
क्या बरसों की धूल से मैला हो जाता?
या अब सा नया ही रहता?
या इश्क़ बन जाता?
कि कुछ घडी का खेल?
खैर वक्त किसने बाँचा है…..
इन छोटे छोटे लम्हों को पिरो लो
तो दिल का एक कोना
हरा हो जाता है…
ऐसे लम्हों का इन्तजार रह जाता है

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